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बॉस की पार्टी

संजय कुन्दन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6048
आईएसबीएन :81-263-1427-0

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युवा कलाकार संजय कुन्दन का पहला कहानी संग्रह है, ‘बॉस की पार्टी’।

Boss Ki Party - A Hindi Book by Sanjay Kundan - बॉस की पार्टी - संजय कुन्दन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संजय कुन्दन यथार्थ की तीव्रता और वक्रता को पहचान कर अपनी कहानियों के प्रस्थान निर्मित करते हैं। इस प्रक्रिया में समकालीन राजनीति संस्कृति विचारधारा विमर्श और संधर्ष के अनेक संश्लिष्ट-विशिष्ट बिम्ब आकर पाते हैं। संजय राजनैतिक विवेक से लैस रचनाकार हैं, किन्तु उसके शब्दाडम्बर से मुक्त हैं। उत्तरआधुनिक के ऊपर-उर्वर समय से मुठभेड़ करते मनुष्य की उठापटक विलक्षण व्यजंनाओं के साथ संजय कुन्दन की ये सारी कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपकर अपनी मौलिकता-महत्ता सिद्ध कर चुकी हैं। ‘गाँधी जयन्ती’ ‘मेरे सपने वापस करो’, ‘बॉस की पार्टी’ ‘ऑपरेशन माउस’ और ‘केनटी की कार’ जैसी रचनाओं ने स्पष्टतः कहानी के ‘अन्तःकरण का आयतन’ विस्तृत किया है। स्थानीयता व वैश्विकता के द्वन्द्व से उभर रही नयी सामाजिकता को भी रचनाएं रेखांकित करती हैं। किस्सागोई को संजय कुन्दन ने नया अर्थ दिया है। जिसे ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ कहा जाता है उसे संजय की भाषा सम्पुष्ट करती है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन कहानियों का ‘औपन्यासिक स्वभाव’ पाठकों की चित्तवृत्ति को आस्वाद के लोकतन्त्र में ला खड़ा करता है।

सुशील सिद्धार्थ

गाँधी जयन्ती


‘‘अरे ! न प्रभुदयाल तो मन्त्री बन गया।’’ पिताजी ने अखबार से सिर निकालते हुए कहा।
‘‘प्रभुदयाल !’’ मैं चौंका।
‘‘यह वहीं है न, जो तुम्हारे साथ पढ़ता था? इसकी फोटो देखो।’’ पिता जी ने मेरी ओर अखबार बढ़ाया।
राज्य के नये मंत्रिमण्डल के शपथ लेने का समाचार था। मन्त्रियों की तस्वीरें छपी थीं जिसमें एक फोटो थी –डिप्टी मिनिस्टर प्रभुदयाल की। हाँ, यह वही प्रभुदयाल था, मेरे हाईस्कूल का सहपाठी।

मुझे पिताजी की याददाश्त पर आश्चर्य हुआ। इधर वे बात भूलने लगे थे। लेकिन उन्हें प्रभुदयाल का चेहरा याद था जबकि उन्होंने उसे सालों पहले बस एक बार देखा था।
‘‘वहीं है न ?’’ पिताजी ने पूछा।
‘‘हाँ –हाँ, वहीं है।’’ मैंने कहा और चाय पीने लगा।,
‘‘मन्त्री बन गया...!’’ पिताजी बुदबुदाये, फिर अखबार रखकर उन्होंने अपनी चाय उठायी।
करीब दस वर्षो में प्रभुदयाल के चेहरे में कोई खास बदलाव नहीं आया था। हो सकता है उसे सामने देखूँ तो वह थोड़ा अलग नजर आये।
‘‘वह पॉलिटिक्स में कब गया ?’’ पिताजी ने चाय की चुस्की लेकर पूछा।
‘‘मुझे ठीक-ठीक याद नहीं। उसका एक दोस्त मिला था सालभर पहले, वही बता रहा था कि प्रभुदयाल अपने गाँव का सरपंच बन गया है।’’
‘‘अच्छा सरपंच से सीधा मंत्री ! इतने कम समय में इतनी तरक्की ...ऐसे ही लोगों का जमाना है।’’ यह कहकर पिताजी सामने देखने लगे, फिर कहीं खो गये।
मैंने प्रभुदयाल की तस्वीर पर नजर डाली। लगा जैसे वह मुझे घूर रहा हो। उसकी आँखों में पहले जैसी विरक्ति नजर आयी। क्या अब भी वह मेरे प्रति मन में उतनी ही नफरत रखता होगा जितनी स्कूल में रखता था ?
वह क्लास मे सबसे पीछे बैठने वाले लड़कों में से था। न सिर्फ बेंच पर बल्कि पढ़ाई में भी वह सबसे पीछे रहा था। जबकि मैं अव्वल रहता था।

मेरा उसका संवाद एक अप्रिय प्रसंग से शुरू हुआ था। मैं क्लास का मानीटर था। कक्षा में शान्ति बनाए रखने की जिम्मेवारी मेरी थी। टीचर जब नहीं होते या क्लास वर्क चेक कर रहे होते तो मै इस बात का ध्यान रखता कि कोई बातचीत न करे। जो बच्चे बात करते मैं उनके नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख देता था। एक दिन मैंने प्रभुदयाल को बात करते हुए देखा। तब मुझे उसका नाम मालूम नहीं था। मैंने पूछा,
‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
‘‘क्यों ?’’ उसने मुँह बनाकर कहा।
‘‘तुम बात कर रहे हो।’’ मैंने कहा।
‘‘हम बात नहीं कर रहे हैं।’’
‘‘ठीक है। अब बात मत करना लेकिन अपना नाम तो बता दो।’’
‘‘मेरा नाम प्रभुदयाल है।’’ उसने फिर उसी तरह मुँह बनाया। उसने मेरी सलाह नहीं मानी और उसी तरह बातें करता रहा। मैंने उनका नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख दिया। टीचर ने उसे दो छड़ी जमायी।
लंच ब्रेक में मैं झूला झूल रहा था। प्रभुदयाल ने पीछे से झूला पकड़ लिया और बोला, ‘‘मॉनीटर बन गये तो अपने आपको बड़ा काबिल समझते हो।’’

मैंने झूले से उतरकर कहा प्रभुदयाल ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे तुमसे कोई दुश्मनी थोड़े ही है! जो बात करता है, मैं उसका नाम लिखता हूँ। तुम बात क्यों कर रहे थे ?’’
उसने कहा तुम हमको ठीक से जानते नहीं हो न। स्कूल के बाहर निकलो तब बताएंगे।’’
मैं भौंचक रह गया। आज तक किसी ने मुझसे इस तरह बात नहीं की थी। मेरे जी में आया कि जाकर क्लास टीचर को बता दूँ। फिर सोचा कि प्रभुदयाल इस स्कूल में नया है, जल्दी ही यहाँ के तौर-तरीके सीख जाएगा।
दो-तीन दिनों के बाद फिर ऐसा कुछ हो गया। मैं शाम को सब्जी लाने बाजार गया था। पान की दुकान पर मुझे प्रभुदयाल दो-तीन लड़कों के साथ दिखाई पड़ा। मुझे उसकी धमकी याद आयी। मैं थोड़ा सहमा।
तभी मैंने देखा कि प्रभुदयाल और उसके दोस्तों ने सिगरेट सुगलायी और दुकान के पीछे जाकर कश लेने लगे।
मैं यह भूल गया कि बाजार में हूँ। मुझे लगा कि क्लास में हूँ और मॉनीटर होने के नाते प्रभुदयाल को गलत करने से रोकना मेरा फर्ज है। यह सोचकर मैं उन लोगों के पास पहुँच गया। प्रभुदयाल मुझे देखकर हैरान रह गया। वह कुछ बोलता इससे पहले मैंने कहा, ‘‘तुम सिगरेट पी रहे हो ?’’

‘‘नहीं हुक्का पी रहे हैं।’’ उसने जवाब दिया। उसके दोस्त हंस पड़े।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसे यह बात किस तरह समझाऊँ कि ध्रूमपान बुरी बात होती है। इस उम्र से सिगरेट पीना घातक है।
‘‘तुमको भी पीना है क्या ?’’ प्रभुदयाल ने पूछा।
‘‘देखों, अगर यह बात तुम स्कूल में किसी से बताओगे तो टांग चीर देगें।’’
प्रभुदयाल ने फिर धमकी दी ।
‘‘ठीक है नहीं बताऊँगा लेकिन मेरी एक बात मान लो। यह बुरी आदत है छोड़ दो इसे। इससे नुकसान तुम्हारा ही होगा।’’
‘‘अच्छा !’’ प्रभुदयाल मुस्कराया, ‘‘तू गाँधी जी है क्या .....सबको सुधारने चला है !’’
‘‘इसको भी पिलाओ रे ।’’ यह कहकर उसके एक दोस्त ने मेरे मुँह में सिगरेट सटाने की कोशिश की। तम्बाकू की गंध और धुएँ से मुझे उबकाई आने लगी। मैं तेजी से भागा।

दूसरे दिन वह मुझे पहली घंटी से ही घूरता रहा। शायद उसे डर था कि मैं सिगरेट वाली बात कहीं टीचर को न बता दूँ। लेकिन मैंने उसकी शिकायत नहीं की। छुट्टी के बाद मैं निकलने लगा तो वह मेरे पास आया। मेरे कान में अपना मुँह सटाकर बोला।’ ‘‘क्या गाँधी जी!’’ मैंने कुछ नहीं कहा, चुपचाप चला गया
प्रभुदयाल पढ़ने में फिसड्डी था लेकिन खेल-कूद में उसकी काफी रुचि थी। वह स्पोर्ट और पीटी टीचर की नजर मे चढ़ गया। पीटी टीचर ने उसे कमांडर बना दिया। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को हमारी परेड का नेतृत्व वहीं करता था। सामान्य दिनों में भी हमारी परेड वही कराता था। अक्सर पीटी टीचर सारी जिम्मेदारी उसके ऊपर छोड़कर चले जाते थे। तब वह किसी-न-किसी बहाने मुझे परेशान करने की कोशिश करता। वह जब-तब मुझसे कहता, ‘‘गाँधीजी जरा ठीक खड़ा होइए ...तन के। पैर ठीक से मिलाइए गाँधी।’’ एक दिन वह इसी तरह ड्रिल करा रहा था। चूँकि स्कूल कम्पाउंड छोटा था इसलिये हम लोग बाहर सड़क पर परेड कर रहे थे। प्रभुदयाल ने हमें आदेश दिया, ‘विश्राम’ सारे लड़के हाथ पीछे कर विश्राम की अवस्था मे खड़े हो गये।

उस समय सड़क पर एक लड़की चली जा रही थी। अचानक प्रभुदयाल लड़की की तरफ मुड़ गया और उसके साथ चलने लगा। प्रभुदयाल के हाथ में एक छड़ी थी जिसे वह परेड कराते समय अपने साथ रखता था। उसने छड़ी से लड़की की चुन्नी खींच ली और उसे छड़ी में छड़ी की तरह लपेटकर ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ कराने लगा। लड़की का चेहरा रुआँसा हो गया। उसने चुन्नी माँगी तो प्रभुदयाल ने उसके गाल पर चिकोटी काट ली। मुझसे रहा नहीं गया मैं कतार से बाहर निकला और प्रभुदयाल की छड़ी से चुन्नी निकालकर लड़की को दे दी। वह चुन्नी लेकर भागी।’’ तुम लाइन से बाहर कैसे आ गये ?’’ प्रभुदयाल गरजा।

‘‘और तुम क्या कर रहे थे ? तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आयी? तुम परेड कराते-कराते छेड़खानी करने लगे।’’ मैंने भी जोर से कहा।
तभी टीचर आ पहुँचे। उन्हें देखते ही प्रभुदयाल संभल गया। उसने लड़कों को आदेश दिया, ‘‘सावधान। आगे बढ़।’’ लड़के मार्च करने लगे। मैं भी लाइन में घुस गया। परेड खत्म करके सभी क्लास में आये पर प्रभुदयाल कोई बहाना बनाकर घर चला गया।

लड़के उसी घटना की चर्चा कर रहे थे। कोई प्रभुदयाल को गलत नहीं ठहरा रहा था। उसके हीरो की छवि बन गयी थी। लेकिन मैं दुखी था।
उस दिन क्लास खत्म होने के बाद जो कुछ हुआ, उसे शायद जीवन भर नहीं भूल पाऊँगा।
मेरा घर स्कूल से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर था। जब मैं साइकिल से लौट रहा था तो रास्ते में मुझे प्रभुदयाल मिला। मैंने उसे दूर से ही देख लिया था। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरा ही इन्तजार कर रहा हो।
मैं ज्यों ही करीब पहुँचा वह एकदम मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसने हैंडल पकड़ ली।
‘‘नीचे उतरकर मैंने साइकिल स्टैड पर चढ़ा दी।

‘‘तुम जल्दी आ गये ...।’’ मैंने स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश की।
‘‘तू अपना गांधीपन छोड़ेगा कि नहीं?’’ यह कहकर उसने मेरा कालर पकड़ लिया।
‘‘मतलब ..?’’ मैं और कुछ कह न सका।
‘‘अबे गाँधी की औलाद....।’’ यह कहकर उसने एक घूसा मेरे जबड़े जमा दिया। मैं दर्द से कराह उठा। लगा जैसे सारे दाँत हिल गये।
मैं जब तक सँभलता वह चला गया। मैं अपमान की तेजाबी नदी में इस तरह कभी नहीं गिरा था। मारने की बात तो दूर मुझे आज तक किसी ने डाँटा तक नहीं। मेरी प्रतिष्ठा थी इसलिए प्रभुदयाल का यह आघात मुझे अन्दर तक हिला गया
मेरे मुँह से खून निकल आया था। यह देखकर मैं रो पड़ा। घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। साइकिल पर बैठने की बजाय मैं उसे लुढ़काता हुआ बड़ी देर बाद घर पहुँचा।

मैंने सबसे पहले कुल्ला किया। खून बन्द हो गया था, इसलिये निश्चिन्त हुआ। सोचा कि यह बात किसी को नहीं बताऊँगा, हालाँकि मैं पिताजी से कुछ भी छिपाता नहीं था। लेकिन रात में पिताजी को मेरा लटका मुँह देखकर शक हो गया। उन्होंने बार-बार पूछा तो मैं अपने को रोक नहीं पाया। सब कुछ बता डाला। उन्होंने कहा, ‘‘मैं कल तुम्हारे स्कूल चलूँगा।

मैं डर गया। मुझे लगा कहीं बात और बिगड़ न जाए। इसलिये मैंने उनसे विनती की कि वे ऐसा न करें। मगर वे नहीं माने।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि पिताजी का इरादा क्या है। प्रिन्सिपल से शिकायत करने पर प्रभुदयाल और भी भड़क सकता था। वह मुझे परेशान कर सकता था।

हम दोनों स्कूल पहुँचे। तब घंटी नहीं लगी थी, मैने देखा कि प्रभुदयाल वालीबाल खेल रहा है। मैंने पिताजी को इशारे से बताया कि वह वही प्रभुदयाल है। पिताजी ने मुझे उसे बुलाकर लाने को कहा। मैं उसके पास जाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। पिताजी समझ गये। वे खुद उसके पास चले गये। उन्होंने पहले उसे बुलाया, फिर मुझे। प्रभुदयाल ने पिताजी को उसी तरह घूरा जैसे मुझे घूरता था। पिता जी ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछा, ‘‘बेटे आप ही प्रभुदयाल हैं?’’

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